बीसवीं शताब्दी से इक्कीसदी के साहित्य साथ के प्रवा हों में प्रवेश करते हुए उसके कई विशिष्ट पहलू और रूप बराबर आंखों के सामने तैरने लगते है | यह वह साहित्य है जो हमे मध्यकालीन बोध से आधुनिकता बहुत तक, परंपरा से प्रयोग तक, आदर्श से यथार्थ-बोध तक मूल चेतना से मूल्यों के तीव्र संक्रमण की स्थितियों तक इस तरह ले आया है कि परंपरा यथार्थ, और मूल्य बड़ी तेजी से आधारहीन परिकल्पनाऐं लगने लगी हैं | इस साहित्य में हमें विश्वास की जगह विचार, आस्था की जगह विवेक और ईश्वर की जगह नए मनुष्य की संकल्पना दी है | यह साहित्य साक्षी रहा है, विभिन्न विचारों विचारधाराओं चिंतन पद्धतियों और आंदोलनों में घमासान का | कविता के साथ-साथ कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध, जीवनी, आत्मकथा, हास्य और व्यंग, क्या नहीं है इस साहित्य में ? इसके द्वारा विभिन्न सृजनात्मक विधाओं में ज्ञान और संवेदना के इतिहास के अभूतपूर्व पन्ने खोज दिए हैं | इसी में से उभर कर आया हैं लंबी कविता का सृजनात्मक माध्यम | 2020 तक आते-आते नयी कविता पीढ़ी की जो लंबी कविताएं सामने आई हैं, उनमें उत्तर आधुनिक स्थितियों से टकराते हुए अनुभवो की नयी बाननियां ही नहीं हैं लंबी कविता के नए रूप और प्रयोगात्मक मॉडल भी दिख रहे हैं | लंबी कविताएं नए रंग - रूप, नयी भाषा और शिल्प में आ रहीं हैं | लंबी कविता ने क्लासिकल रचना विधान की जकड़न से मुक्ति का एहसास कराया है | इस ने एक बड़ा कैनवस और खुलापन दिया है | जिससे समय के साथ बदलती वास्तविकता के विभिन्न रूपों को पकड़ने की सामर्थ्य है | यह एक ओपन फॉर्म है समापन रूढ़ि से मुक्ति | इसमें ऐसा लचीलापन है कि अनवरत प्रयोग करने की छूट है | इस तरह से देखें तो यह कला माध्यम बाहरी- भीतरी स्वतंत्रा पर एकग्र है | एक लंबे दौर में नित नए रूपों में वस्तु - निरूपण, शैली - शिल्प और भाषा के नए प्रयोगों द्वारा इस कला - रूप ने अपनी मौलिकता को रेखांकित किया है
कवि नाटककार और आलोचक के रूप में सुविख्यात डॉ. नरेंद्र मोहन का जन्म 30 जुलाई , 1935 लाहौर | हिंदी विभाग दि.वि. साहित्य का अध्यापन ! सन 2000 में सेवानिवृत्त | भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला, बाबासाहेब अंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय औरंगाबाद, गोवा विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर | अपने कविता-संग्रह : इस हादसे में होने से (1975), सामना होने पर (1979), एक अग्निकांड जगहे बदलता (1983), हथेली पर अंगारे की तरह (1990), संकट दृश्य का नहीं (1993), एक खिड़की खुली है अभी (2006), नीले घोड़े का सवार (2008), रंग आकाश में शब्द (2010), शर्मिला इरोम तथा अन्य कविताएं (2014), रंग दे शब्द (2015), नृत्य से कविता (2016), द्वारा वे नए अंदाज में कविता की परिकल्पना करते रहे हैं l अपने नाटकों -कहै कबीर सुनो भाई साधो (1988), सिंगधारी (1988), कलंदर (1991), नो मैंस लैंड (1994), अभंग- गाथा (2000), मि. जिन्ना (2005), हद हो गई यारों (2009), मंच अंधेरे में (2010), और मालिक अकबर (2012), में वे हर बार नई वस्तु और रंग-दृष्टि की तलाश करते दिखते हैं l नई रंगत में ढली उनकी डायरियो-साथ-साथ मेरा साया (2002), से अलग (2010), और डर और साहस के बीच (2018), फ्रेम से बाहर आती तस्वीरें (संस्मरण , 2010) मंटो जिंदा है ( जीवनी, 2012), कमबखत निंदर (आत्मकथा 2013), और क्या हाल सुनावा (आत्मकथा, 2015), ने इस विधाओं को नए मायने दिए हैं l 12 खंडों में नरेंद्र मोहन रचना वाले और दो खंडों में संपूर्ण कविताएं प्रकाशित हो चुकी है l विचार कविता और 'लंबी कविता' के विमर्श के जरिए उन्होंने सृजन और चिंतन के नए आधारों की खोज की है l उनके नाटक, आत्मकथाएं, जीवनी और कविताएं विभिन्न भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी में अनूदित हो चुकी है | वे कई प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित साहित्यकार है |